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Nazir Ahmad ki Kahani By Mirza Farhatullah Baig // Bihar Board Class 12th Urdu

मैं और मियाँ दानी साड़े ग्यारह बजे मदरसे से आए, खाना वाना खाया, सबक का मुताला किया और एक बजे निकल खड़े हुए। मकान का पता पूछते पंछाते डेढ़ में पाँच मिनट थे कि मौलवी साहब के दरवाजे पर जड़झमके। दरवाजे की एक चौकी पर मैं और दूसरी पर मियाँ दानी डट गए। सामने ही कमरा था। बेचमारी रस्सी हाथ में लिए ऊंग रही थीं। कभी-कभी रस्सी को एक आधा झटका दे देती थीं। कमरे के अंदर मौलवी साहब थे लेकिन दरवाजा बंद था, इसलिए दिखाई नहीं देते थे। अब यह ख़याल हुआ कि यह मौलवी साहब ही का मकान है या किसी दूसरे का! अंदर ज़नाना तो नहीं है। ग़रज़ इस शिश व पंज में थे कि मौलवी साहब के कमरे के घंटे ने टन से डेढ़ बजाया। हम दोनों उठे और दबे पाँव, चोरों की तरह अंदर दाखिल हुए। घर में सनाटा था। बेचमारी ने सर भी उठा कर नहीं देखा कि कौन जा रहा है। कमरे का एक दरवाजा खुला था। इसमें गर्दन डाल कर झांका। चूंकि रौशनी से अंधेरे में आए थे, इसलिए कुछ दिखाई नहीं दिया। अंदर से किसी ने डांट कर कहा: कौन है? इस आवाज़ को पहचान कर हम तो संभल गए, मगर बेचमारी अचल पड़ीं और बेइक्तियार उनके मुँह से गुंबद की आवाज़ की तरह निकला: कौन है? मैंने कहा: मैं और दानी। मौलवी साहब ने कहा: आओ बेटा अंदर आओ। मौलवी साहब फ़ौरन पलंग पर उठ बैठे और शहर को संभालते हुए नीचे उतर आए, पूछा: क्या पढ़ते हो? हमने किताब पेश की। थोड़ी देर तक उलट पलट कर देखते रहे, उसके बाद कहा: भाई एक किताब मेरे लिए भी लेते आना। हमने अपनी एक किताब उनको दे दी और दूसरी से दोनों ने मिल कर काम निकाला। कब पढ़ाया और किस तरह पढ़ाया, उसका मैं आगे ज़िक्र करूँगा, हाँ यह ज़रूर है कि जब पढ़ कर उठे तो सब कुछ याद था, मगर दिमाग़ पर किसी किस्म का बार न था। खुशी-खुशी घर आए। चलो अल्लाह दे और बंदा ले | हमने भी कॉलेज में मौलवी साहब की तारीफ़ों के पुल बाँध दिए। यहाँ तक कि यह आवाज़ हिन्दू कॉलेज के तालिबे  के कान तक पहुँची। वहाँ के एक तालिब मिस्टर रज़ा के दिल में गुद-गुदी उठी, वह आए, हम से मिले और कहा: भाई, मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ, मौलवी साहब इनकार तो नहीं करेंगे? हमने कहा: चलो और ज़रूर चलो, मौलवी साहब का क्या बिगड़ता है, दो को नहीं पढ़ाया तीन को पढ़ाया। उन्होंने कहा: नहीं, पहले मौलवी साहब से पूछ लो। हमने कहा: यार चलो भी, अगर उन्होंने कुछ कहा, तो हमारा ज़िम्मा। वह राज़ी नहीं हुए और यही कहा कि पहले पूछ लो। इस अर्से में हमारी हिम्मत मौलवी साहब के सामने बहुत बढ़ गई थी, दूसरे दिन जाते ही रज़ा का ज़िक्र किया। उन्होंने कहा: लेते क्यों नहीं आए। हमने कहा: वह ज़रा शरमिले हैं, बिना इजाज़त आना नहीं चाहते। ठीक है कल ज़रूर साथ लाना, थोड़ा उनका भी रंग देख लूं। शाम को वापसी के समय जाते जाते फराशख़ाने में हमने रज़ा को मौलवी साहब का इजाज़तनामा पहुँचाया और कह दिया कि भाई पूरे डेढ़ बजे पहुँच जाना, वरना अंदर घुसना नहीं मिलेगा। दूसरे दिन जब हम पहुँचे, तो वह पहले ही से दरवाज़े पर बैठे थे। ठीक डेढ़ बजे हम अंदर दाखिल हुए। मौलवी साहब हमको देखते ही पलंग पर उठ बैठे और कहा: "लाओ किताब।" हमने किताब ताक पर से उतार कर उनके हाथ में दी और वह किताब लेते लेते नीचे आ बैठे और कहा: "अच्छा ये हैं, मियाँ रज़ा!" बेचारे रज़ा ने गर्दन झुका कर कहा: "जी हाँ।" मौलवी साहब ने कहा: "अच्छा भाई शुरू करो।"


میں اور میاں دانی ساڑھے گیارہ بجے مدرسے سے آئے، کھانا وانا کھایا، سبق کا مطالعہ کیا اور ایک بجے نکل کھڑے ہوئے۔ مکان کا پتا پوچھتے پنچھاتے ڈیڑھ میں پانچ منٹ تھے کہ مولوی صاحب کے دروازے پر جادھمکے۔ دروازے کی ایک چوکی پر میں اور دوسری پر میاں دانی ڈٹ گئے ۔ سامنے ہی کمرا تھا۔ بی چماری رہتی ہاتھ میں لیے اونگھ رہی تھیں۔ کبھی کبھی رہی کو ایک آدھ جھٹکا دے دیتی تھیں ۔ کمرے کے اندر مولوی صاحب تھے لیکن دروازہ بند تھا ، اس لیے دکھائی نہ دیتے تھے۔ اب یہ خیال ہوا کہ یہ مولوی صاحب ہی کا مکان ہے یا کسی دوسرے کا ! اندر زنانہ تو نہیں ہے۔ غرض اس شش و پنج میں تھے کہ مولوی صاحب کے کمرے کے گھنٹے نے ٹن سے ڈیڑھ بجایا ۔ ہم دونوں اٹھے اور دبے پانو، چوروں کی طرح اندر داخل ہوئے ۔ گھر میں سناٹا تھا۔ بی چماری نے سر بھی اٹھا کر نہ دیکھا کہ کون جا رہا ہے۔ کمرے کا ایک دروازہ کھلا تھا۔ اس میں گردن ڈال کر جھانکا۔ چوں کہ روشنی سے اندھیرے میں آئے تھے، اس لیے کچھ دکھائی نہ دیا۔ اندر سے کسی نے ڈانٹ کر کہا: کون ہے؟ اس آواز کو پہچان کر ہم تو سنبھل گئے ، مگر بی چماری اچھل پڑیں اور بے اختیار ان کے منھ سے گنبد کی آواز کی طرح نکلا: کون ہے؟ میں نے کہا: میں اور دانی۔ مولوی صاحب نے کہا: آؤ بیٹا اندر آؤ ۔ مولوی صاحب فورا پلنگ پر اٹھ بیٹھے اور شہر کو سنبھالتے ہوئے نیچے اتر آئے ، پوچھا: کیا پڑھتے ہو؟ ہم نے کتاب پیش کی ۔ تھوڑی دیر تک الٹ پلٹ کر دیکھتے رہے، اس کے بعد کہا: بھئی ایک کتاب میرے لیے بھی لیتے آنا۔ ہم نے اپنی ایک کتاب ان کو دے دی اور دوسری سے دونوں نے مل کر کام نکالا ۔ کب پڑھایا اور کس طرح پڑھایا ، اس کا میں آئندہ ذکر کروں گا ، ہاں یہ ضرور ہے کہ جب پڑھ کر اٹھے تو سب کچھ یا تھا، مگر دماغ پر کسی قسم کا بار نہ تھا۔ خوشی خوشی گھر آئے ۔ چلو اللہ دے اور بندہ لے۔
ہم نے بھی کالج میں مولوی صاحب کی تعریفوں کے پل باندھ دیے۔ یہاں تک کہ یہ آواز ہندو کالج کے طلبہ کے کان تک پہنچی۔ وہاں کے ایک طالب علم مسٹر رضا کے دل میں گدگدی اٹھی ، وہ آئے ، ہم سے ملے اور کہا: بھئی، میں بھی تمھارے ساتھ چلوں ، مولوی صاحب انکار تو نہ کریں گے؟ ہم نے کہا: چلو اور ضرور چلو، مولوی صاحب کا کیا بگڑتا ہے، دوکو نہ پڑھایا تین کو پڑھایا۔ انھوں نے کہا: نہیں، پہلے مولوی صاحب سے پوچھ لو ۔ ہم نے کہا: یار چلو بھی ، اگر انھوں نے کچھ کہا، تو ہمارا ذ مہ ۔ وہ راضی نہ ہوئے اور یہی کہا کہ پہلے پوچھ لو۔ اس عرصے میں ہماری ہمت مولوی صاحب کے سامنے بہت بڑھ گئی تھی ، دوسرے دن جاتے ہی رضا کا ذکر کیا۔ انھوں نے کہا: لیتے کیوں نہ آئے ۔ ہم نے کہا: وہ ذرا شر میلے ہیں، بغیر اجازت آنا نہیں چاہتے ۔ انھوں نے کہا:

طالب علم شرمیلا ہوا اور ڈوبا۔ خیر کل ضرور ساتھ لانا، ذرا ان کا بھی رنگ دیکھ لوں ۔ شام کو واپسی کے وقت جاتے جاتے فراش خانے میں ہم نے رضا کو مولوی صاحب کا اجازت نامہ پہنچادیا اور کہ دیا کہ بھٹی پورے ڈیڑھ بجے پہنچ جاتا ، ورنہ اندر گھنا نہ ملے گا۔ دوسرے دن جو ہم پہنچے ، تو وہ پہلے ہی سے دروازے پر ڈھٹی دیے بیٹھے تھے۔ ٹھیک ڈیڑھ بجے ہم اندر داخل ہوئے۔ مولوی صاحب ہم کو دیکھتے ہی پلنگ پر اٹھ بیٹھے اور کہا: لاؤ کتاب ۔ ہم نے کتاب طاق پر سے اتار اُن کے ہاتھ میں دی اور وہ کتاب لیتے لیتے نیچے آ بیٹھے اور کہا اچھا یہ ہیں میاں رضا ! بے چارے رضا نے گردن جھکا کر کہا: جی ہاں۔ مولوی صاحب نے کہا:  اچھا بھئی شروع کرو۔

हमारे पढ़ने का यह तरीक़ा था कि एक रोज़ में पढ़ता था, दूसरे रोज़ मियाँ दानी, अब इसको हमारी शरारत कहो या महज़ इत्तेफ़ाक, हम दोनों चुपके बैठे रहे। जब इस ख़ामोशी ने तौल खींचा, तो मौलवी साहब ने कहा: "अरे भाई आज तुम पढ़ते क्यों नहीं? क्या मुँह में घुंघनियाँ भर कर आए हो? अच्छा मियाँ रज़ा! तुम ही शुरू करो।" रज़ा ने सफ़हा पूछा और पढ़ना शुरू किया, अगर इराब की ग़लतियाँ मुझ से कम कीं तो नज़्म को नशर मियाँ दानी से ज़्यादा बना दिया। एक आधा शेर तक तो मौलवी साहब चुपके सुनते रहे, उस के बाद कहने लगे: "वाह भाई वाह! हम को भी अज़ब नमूने के शागिर्द मिले हैं। मियाँ रज़ा! अगर हम तुम को एक नेक सलाह दें तो मानोगे?" रज़ा ने निहायत शर्मीली आवाज़ में, गर्दन झुका कर कहा: "ये सर्वचशम।" मौलवी साहब ने कहा: "देखो अपने वादे से फिर न जाना।" उन्हों ने कहा: "जी नहीं।" मौलवी साहब ने कहा: "अच्छा तो मेरी सलाह यह है कि कल से तुम मेरे यहाँ न आना।" ये सुन कर वो बेचारे कुछ पर मुर्दा से हो गए। मौलवी साहब ने कहा: "भाई रज़ा! मैं नहीं कहता कि मेरे यहाँ आना ही छोड़ दो। मैं तुम को भी शर्त से पढ़ाऊँगा, मगर तुम दस पंद्रह रोज़ शाम के वक़्त काली जान के यहाँ तालीम में हो आया करो। इतने दिनों के आने जाने में तुम्हारे कानों को नज़्म और नसर का फ़र्क़ मालूम होने लगेगा। भाई मुझसे तो शेरों के गले पर छड़ी फ़ेरी देखा नहीं जाता।" बेचारे मनी को क्या ख़बर थी कि बताशों की गली में, नज़ीर अहमद के कमरे में, उस के अशार मौलवी रज़ा साहब इस तरह हलाल करेंगे। बेचारे रज़ा के सर पर घड़ों पानी पड़ गया। ख़ुदा ख़ुदा कर के सबक़ ख़तम हुआ और हम सब रख़्शत हुए। रास्ते में हमने उन को बहुत बनाया। दूसरे दिन से वह ऐसे ग़ाइब हुए कि फिर शक्ल न दिखाई।

مارے پڑھنے کا یہ طریقہ تھا کہ ایک روز میں پڑھتا تھا ، دوسرے روز میاں دانی ، اب اس کو ہماری شرارت کہو یا محض اتفاق ، ہم دونوں چپکے بیٹھے رہے۔ جب اس خاموشی نے طول کھینچا تو مولوی صاحب نے کہا: ارے بھئی آج تم پڑھتے کیوں نہیں؟ کیا منہ میں گھنگھنیاں بھر کر آئے ہو؟ اچھا میاں رضا ! تم ہی شروع کرو۔ رضا نے صفحہ پوچھا اور پڑھنا شروع کیا ، اگر اعراب کی غلطیاں مجھ سے کم کیں تو نظم کو نر میاں دانی سے زیادہ بنادیا۔ ایک آدھ شعر تک تو مولوی صاحب چپکے سنتے رہے، اس کے بعد کہنے لگے: واہ بھئی واہ ! ہم کو بھی عجب نمونے کے شاگرد ملے ہیں۔ میاں رضا ! اگر ہم تم کو ایک نیک صلاح دیں تو مانو گے؟ رضا نے نہایت شرمیلی آواز میں، گردن جھکا کر کہا: یہ سروچشم ۔ مولوی صاحب نے کہا: دیکھو اپنے وعدے سے پھر نہ جانا۔ انھوں نے کہا: جی نہیں ۔ مولوی صاحب نے کہا: اچھا تو میری صلاح یہ ہے کہ کل سے تم میرے ہاں نہ آنا ۔ یہ سن کر وہ بچارے کچھ پڑ مردہ سے ہو گئے ۔ مولوی صاحب نے کہا: بھئی رضا ! میں نہیں کہتا کہ میرے ہاں آنا ہی چھوڑ دو۔ میں تم کو بھی ضرور پڑھاؤں گا ، مگر تم دس پندرہ روز شام کے وقت کالی جان کے ہاں تعلیم میں ہو آیا کرو۔ اتنے دنوں کے آنے جانے میں تمھارے کانوں کو نظم اور نثر کا فرق معلوم ہونے لگے گا۔ بھئی مجھ سے تو شعروں کے گلے پر چھری پھیرتے دیکھا نہیں جاتا۔ بے چارے منی کو کیا خبر تھی کہ بتاشوں کی گلی میں ، نذیر احمد کے کمرے میں، اس کے اشعار مولوی رضا صاحب اس طرح حلال کریں گے۔ بچارے رضا کے سر پر گھڑوں پانی پڑ گیا۔ خدا خدا کر کے سبق ختم ہوا اور ہم سب رخصت ہوئے۔ راستے میں ہم نے ان کو بہت بنایا۔ دوسرے روز سے وہ ایسے غائب ہوئے کہ پھر شکل نہ دکھائی۔

मिस्टर रज़ा की हया का हाल तो सुन चुके, अब हमारी बेहयाई की कहानी सुनाएँ। मेरी सिर्फ़ व नहव बहुत कमज़ोर था, और कमज़ोर क्यों न होती, शुरू किये हुए कई दिन हुए थे। इराब में हमेशा ग़लती करता था। नसर को तो संभाल लेता था, मगर नज़्म में दिक्कत पड़ती थी। शेर ख़ुद भी कहता था, दूसरों के हज़ारों शेर याद थे, इसलिए शेर को तख़्तिया से गिरने नह देता था। मियाँ दानी की हालत उस के बिल्कुल बरक़रार थी, वह अइराब की ग़लती न करते थे, मगर शेर को नसर कर देते थे। सकते तो क्या, झटके पड़ जाते थे। मौलवी साहब हम दोनों के पढ़ने से बहुत ज़बज़ब थे।

مسٹر رضا کی حیا کا حال تو سن چکے، اب ہماری بے حیائی کی داستان سینیے۔ میری صرف و نحو بہت کم زور تھی ، اور کم زور کیوں نہ ہوتی ، شروع کیے ہوئے گے دن ہوئے تھے۔ اعراب میں ہمیشہ غلطی کرتا تھا۔ نثر کو تو سنبھال لیتا تھا، مگر نظم میں دقت پڑتی تھی۔ شعر خود بھی کہتا تھا، دوسروں کے ہزاروں شعر یاد تھے، اس لیے شعر کو تقطیع سے گرنے نہ دیتا تھا۔ میاں وانی کی حالت اس کے بالکل برعکس تھی ، وہ اعراب کی غلطی نہ کرتے تھے، مگر شعر کونٹر کر دیتے تھے۔ سکتے تو کیا، جھٹکے پڑ جاتے تھے۔ مولوی صاحب ہم دونوں کے پڑھنے سے بہت جزبز ہوتے تھے۔

एक दिन यह हुआ कि मेरी पढने की बारी थी। मैंने एक शेर पढ़ा, मालूम नहीं कहाँ के अइराब कहाँ लगा गया। मौलवी साहब ने कहा: "हैं? क्या पढ़ा?" मैं समझा कि अइराब में कहीं ग़लती ज़रूर हुई है। तमाम अइराब बदल कर शेर को मुज़ून कर दिया। उन्होंने फिर बड़े जोर से "हूँ" की। हमने फिर अइराब बदल दिए। इससे उनको ग़ुस्सा आया, कहा: "दानी तुम पढ़ो।" उन्होंने शेर का गला ही घोंट दिया, ख़ासे भले चंगे शेर को नसर बना दिया। अब क्या था, मौलवी साहब का पारा एक सौ दस डिग्री पर चढ़ गया। किताब उठा कर जो फेंकी, तो कमरे से गुज़र, दालान में होती हुई सहन में पहुँची और निहायत फ़सीली आवाज़ में कहा: "निकल जाओ, अभी मेरे घर से निकल जाओ। न तुम मुझ से पढ़ने के काबिल हो और न मैं तुम्हारे पढ़ाने के लायक।" दानी ने मेरी तरफ़ देखा। मैंने दानी की तरफ़ देखा। उन्होंने आँखों ही आँखों में कहा: "चलो मैंने आँखों ही आँखों में।" मैंने जवाब दिया: "हरगिज़ नहीं।" उन्होंने उठने का इरादा किया| मौलवी साहब की ये हालत थी की "शेर" की तरह बिफर रहे थे।

आख़िर जब देखा कि ये लौंडे टस से मस नहीं होते तो कहने लगे कि "अब जाते हो या नहीं!" मैंने कहा: "मौलवी साहब! जब तक कोई धक्के देकर न निकालेगा उस वक़्त तक तो हम जाते नहीं और जाएँगे तो अभी फिर आ जायेंगे।" मौलवी साहब ने जो ये बेहयाई देखी तो ज़रा नर्म हुए, कहने लगे: "अच्छा नहीं जाते हो तो न जाओ मगर मैं एक हरफ़ तुमको न पढ़ाऊंगा।" मैंने कहा: "न पढ़ाइये, मगर बिना पढ़े हम यहाँ से न टले हैं, न मिलेंगे।" कहने लगे: "बेटा! इस वक़्त मेरी तबीयत ख़राब हो गई है, अब चले जाओ, कल आ जाना।" दानी ने सच जाना। मैं समझा कि इस वक़्त उठे और मौलवी साहब हाथ से गए। दानी उठ खड़े हुए, मैंने पकड़ कर उनको बैठाया। मौलवी साहब यह तमाशा देखते रहे। मैंने कहा: "मौलवी साहब! पढ़ेंगे तो आज पढ़ेंगे, और आज पढ़ेंगे तो इस वक़्त पढ़ेंगे। पढ़ाना है तो पढ़ाइये, वर्ना हमें यहाँ से न जाना है न जाएँगे।" आख़िरकार हम जीते और मौलवी साहब हारे, कहने लगे: "ख़ुदा महफ़ूज़ रखे तुम जैसे शागिर्द भी किसी के न होंगे।" शागिर्द क्या हुए ।

ایک دن یہ ہوا کہ میرے پڑھنے کی باری تھی۔ میں نے ایک شعر پڑھا، معلوم نہیں کہاں کے اعراب کہاں لگا گیا۔ مولوی . صاحب نے کہا: ہیں ؟ کیا پڑھا؟ میں سمجھا کہ اعراب میں کہیں غلطی ضرور ہوئی ۔ تمام اعراب بدل کر شعر موزوں کر دیا۔ انھوں نے کالا پھر بڑے زور سے ہوں“ کی ۔ ہم نے پھر اعراب بدل دیے۔ اس سے ان کو غصہ آگیا، کہا: وانی اتم تو پڑھو۔ انھوں نے شعر کا گلا ہی گھونٹ دیا، خاصے بھلے چنگے شعر کونٹر بنادیا۔ اب کیا تھا، مولوی صاحب کا پارا ایک سو دس ڈگری پر چڑھ گیا۔ کتاب اٹھا کر جو پھینکی ، تو کمرے سے گزر ، دالان میں ہوتی ہوئی صحن میں پہنچی اور نہایت فصیلی آواز میں کہا: نکل جاؤ ، ابھی میرے گھر سے نکل جاؤ ۔ نہ تم مجھ سے پڑھنے کے قابل ہوا اور نہ میں تمھارے پڑھانے کے لائق ۔ دانی نے میری طرف دیکھا۔ میں نے دانی کی طرف دیکھا۔ انھوں نے آنکھوں ہی آنکھوں میں کہا: چلو میں نے آنکھوں ہی آنکھوں میں جواب دیا: ہرگز نہیں۔ انھوں نے اٹھنے کا ارادہ کیا، میں نے ان کا زا کہ شیر کی طرح بھر رہے تھے۔
آخر جب دیکھا کہ یہ لونڈے ٹس سے مس نہیں ہوتے تو کہنے لگے کہ اب جاتے ہو یا نہیں ! میں نے کہا: مولوی صاحب! جب تک کوئی دھکے دے کر نہ نکالے گا ، اس وقت تک تو ہم جاتے نہیں اور جائیں گے تو ابھی پھر آجائیں گے۔ مولوی صاحب نے جو یہ بے حیائی دیکھی تو ذرا نرم ہوئے ، کہنے لگے: اچھا نہیں جاتے ہوتو نہ جاؤ مگر میں ایک حرف تم کو نہ پڑھاؤں گا۔ میں نے کہا: نہ پڑھائیے ، مگر بغیر پڑھے ہم یہاں سے نہ ملے ہیں، نہ ملیں گے۔ کہنے لگے: بیٹا! اس وقت میری طبیعت خراب ہو گئی ہے، اب چلے جاؤ، کل آجانا۔ دانی نے بچ جانا۔ میں سمجھا کہ اس وقت اٹھے اور مولوی صاحب ہاتھ سے گئے ۔ وانی اٹھ کھڑے ہوئے ، میں نے پکڑ کر ان کو بٹھالیا۔ مولوی صاحب یہ تماشا دیکھتے رہے۔ میں نے کہا: مولوی صاحب! پڑھیں گے تو آج پڑھیں گے، اور آج پڑھیں گے تو اس وقت پڑھیں گے۔ پڑھانا ہے تو پڑھائیے ، ورنہ ہمیں یہاں سے نہ جانا ہے نہ جائیں گے۔ آخر کار ہم جیتے اور مولوی صاحب ہارے، کہنے لگے: خدا محفوظ رکھے تم جیسے شاگرد بھی کسی کے نہ ہوں گے۔ شاگرد کیا ہوئے،

उस्ताद के उस्ताद हो गए। अच्छा भाई मैं हारा, मैं हारा अच्छा, ख़ुदा के लिए किताब उठाला और सबक पढ़ कर मेरा पेन्ड छोड़। देखिए कौन सा दिन होता है कि मेरा तुम से छुटकारा होता है। मैं जाकर सहन में से किताब उठा लाया और मौलवी साहब जैसे थे, वैसे के वैसे हो गए। कहते थे कि अगर इस दिन तुम चले जाते तो मेरे घर में घुसना नसीब नहीं होता। मैं तुम्हारे शौक को आज़माता था, मगर तुमने मुझे ही आज़मा डाला। ख़ुदा ऐसे शागिर्द सभी को नसीब करे। यह बेहयाई नहीं, मियां यह शौक है इल्म का, जिस को चस्का होता है, वह बुरा-भला सभी कुछ सुनता है। बदशौक भाग निकलते हैं और शौकीन उस्ताद को दबा लेते हैं।

استاد کے استاد ہو گئے۔ اچھا بھئی میں ہارا، میں ہارا اچھا خدا کے لیے کتاب اٹھالا ؤ اور سبق پڑھ کر میرا پنڈ چھوڑ ۔ دیکھیے کون سا دن ہوتا ہے کہ میرا تم سے چھٹکارا ہوتا ہے۔ میں جا کر صحن میں سے کتاب اٹھا لایا اور مولوی صاحب جیسے تھے، ویسے کے ویسے ہو گئے ۔ کہا کرتے تھے کہ اگر اس دن تم چلے جاتے تو میرے گھر میں گھسنا نصیب نہ ہوتا۔ میں تمھارے شوق کو آزماتا تھا، مگر تم نے مجھے ہی آزما ڈالا۔ خدا ایسے شاگر د سب کو نصیب کرے۔ یہ بے حیائی نہیں، میاں یہ شوق ہے علم کا ، جس کو چہ کا ہوتا ہے ، وہ بری بھلی سبھی کچھ سنتا ہے۔ بد شوق بھاگ نکلتے ہیں اور شوقین استاد کود بالیتے ہیں۔

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